Sunday 4 October 2009

कविता और केला

इस धूप मेँ
बड़ी बेफ़िक्री से बेचे जा रहा है केले।
बिल्कुल अकेले।
पैसे ही क्यूँ लोहा प्लास्टिक भी लेले।
न तो उसके माथे पर सिकन है,
और न ही उसकी नज़र रौब से सामने खड़ी इमारत पर है।
उसकी नज़र है तो सिर्फ़ उन दरवाजोँ पर,
जो उसकी आवाज सुनकर खुलते हैँ।
मुझे जलन हो रही है उसकी बेफ़िक्री से!
जिनके बारे मेँ सोच कर परेशान रहता हूँ अक्सर..
क्योँ वो उस तरह नहीँ सोचता उन सब चीजोँ को?
वो निम्न वर्ग का है....
...और मैँ शायद मध्यमवर्गीय।
मैँ उसके वर्ग में शामिल नहीँ होना चाहता।
पर उच्च वर्ग मेँ पहुँचने का इरादा है!
लेकिन उसके पास यह सब सोचने के लिये अभी वक्त नहीँ है।
वजह वह पढ़ा-लिखा नहीँ है।
इसलिये वो सपने नहीँ देखता,केले बेचता है।
मैँ पढ़ा-लिखा हूँ?
मैँ वहाँ से हूँ जहाँ सपनोँ का व्यवसाय होता है।
मैँ केले नहीँ बेच सकता।
और पंखे मेँ बैठकर कविता रच रहा हूँ।
और वह केले बेचे चला जा रहा है।
मैँ हूँ कि उसके ऊपर कविता लिख रहा हूँ।
और वो मेरी ओर देखता भी नहीँ है।
क्योँकि मेरे हाथ मेँ लोहा-प्लास्टिक नहीँ है।
उसे मालूम नहीँ है कि मैँ उसी के ऊपर कविता लिख रहा हूँ।
वैसे उसे पता चल भी जाये तो क्या अंतर पड़ेगा उसे?
दरअसल कविता तो मेरी ही कहलायेगी।
या फिर यह कविता उसकी हो भी जाये
तो इसे केले की तरह बेचकर
बच्चोँ का पेट तो नहीँ भर सकता।
चलो ठीक है मैँ कह सकता हूँ
कि उसे कविता बेचना नहीँ आता
और मुझे केले!

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