https://youtu.be/vpeSHPVbD_4
मिला न कोई मीत मुझे............
शब्द नहीं ये भाव हैं मेरे।
Sunday 28 January 2018
Saturday 13 December 2014
कोई नई कहानी लिख
मत बातें वही पुरानी लिख।
अब कोई नई कहानी लिख।
समझ जिंदगी का मतलब,
और मौत के मानी लिख।
मत ले जायजा तूफानों का
तूने क्या है ठानी लिख।
जब देखो तब लैला मजनूं
कभी तो रोटी-पानी लिख।
छोड़ शहर और पिज्जा-बर्गर
गाँव लिख, गुड़-धानी लिख।
नजर उठाकर देख बहन को
फिर शीला की जवानी लिख।
अब कोई नई कहानी लिख।
समझ जिंदगी का मतलब,
और मौत के मानी लिख।
मत ले जायजा तूफानों का
तूने क्या है ठानी लिख।
जब देखो तब लैला मजनूं
कभी तो रोटी-पानी लिख।
छोड़ शहर और पिज्जा-बर्गर
गाँव लिख, गुड़-धानी लिख।
नजर उठाकर देख बहन को
फिर शीला की जवानी लिख।
Sunday 14 April 2013
मय प्यार की
पीकर के मय प्यार की लड़खड़ाने की चीज है।
किसने कहा के जिंदगी होश मेँ आने की चीज है।
रख कर के जाम साकी जाते कहाँ हो तुम,
पियाला ये काँच का क्या होठोँ से लगाने की चीज है।
पहले आँखोँ मेँ हरेक की उम्मीद के जुगुनू जगाइये,
मशाल ये हाथ की बाद मेँ जलाने की चीज है।
मिलाना ही चाहते हो तो कभी दिल को मिलाइये,
हर बार हाथ बढ़ाते हो ये भी कोई मिलाने की चीज है।
किसने कहा के जिंदगी होश मेँ आने की चीज है।
रख कर के जाम साकी जाते कहाँ हो तुम,
पियाला ये काँच का क्या होठोँ से लगाने की चीज है।
पहले आँखोँ मेँ हरेक की उम्मीद के जुगुनू जगाइये,
मशाल ये हाथ की बाद मेँ जलाने की चीज है।
मिलाना ही चाहते हो तो कभी दिल को मिलाइये,
हर बार हाथ बढ़ाते हो ये भी कोई मिलाने की चीज है।
मिला न कोई मीत मुझे
मिला न कोई मीत मुझे मैं मन-मंदिर में किसे सजाता।
दूर-दूर तक दिखा न कोई जिसे अपना कह आवाज लगाता।
कंक्रीटों के घनघोर ये जंगल जिनमें लाशें रहती हैं।
क्यूंकि ये अभिशापग्रस्त हैं अब तक सांसें बहती हैं।
अपनी धड़कन लेकर के फिर पास मैं इनके क्यूं जाता।
मिला न कोई मीत मुझे मैं मन-मंदिर में किसे सजाता।
पुष्प वो निकले कागज के आती कैसे सुगंध कहो।
पग-पग पर अनुबंध हुए तो बनते कैसे संबंध कहो।
मैं अनुबंधों का पालन करता या फिर संबंध निभाता।
मिला न कोई मीत मुझे मैं मन-मंदिर में किसे सजाता।
अपने अपने प्रश्न लिये सब मुझको घेरे खड़े हुए थे।
लेकिन उन प्रश्नों की तुलना में मेरे सपने बहुत बड़े थे।
मेरी बूंद बूंद में सागर था फिर गागर में मैं कैसे भर जाता।
मिला न कोई मीत मुझे मैं मन-मंदिर में किसे सजाता।
गंतव्य मैं अपना क्या बतलाता दिल मेरा बंजारा है।
हर धड़कन स्वच्छंद मेरी मेरी साँस-साँस आवारा है।
महलनुमा उन काराओं में मैं क्यों कर घर-बार बसाता।
मिला न कोई मीत मुझे मैं मन-मंदिर में किसे सजाता
Friday 9 October 2009
हिन्दी की व्यथा
कबीर,सूर,मीरा,घनानंद,बिहारी और गोस्वामी हुये।
तेरी कोख से पैदा जयशंकर,प्रेमचंद जैसे नामी-गिरामी हुये।
मैथिली,माखन,महादेवी,सुभद्रा से जगत मेँ उजाला हुआ।
रेणू,हरिऔध,दुष्यंत, दिनकर है तेरा ही पाला हुआ।
तेरे आँचल मेँ पलकर सूर्यकाँत भी निराला हुआ।
नामवर और कमलेश्वर ने है अब भी सँभाला हुआ।
स्वतंत्रता की नीँव थी,तू भारत-मंदिर के शिखर का कलश है।
मैँ मानता हूँ तुझपे छंद है, अलंकार है, तुझमेँ रस है।
मगर मैँ जानता हूँ हिन्दी तू आज कितनी विवश है।
पूरे वर्ष मेँ तेरे लिये केवल एक हिन्दी-दिवस है।
तेरी कोख से पैदा जयशंकर,प्रेमचंद जैसे नामी-गिरामी हुये।
मैथिली,माखन,महादेवी,सुभद्रा से जगत मेँ उजाला हुआ।
रेणू,हरिऔध,दुष्यंत, दिनकर है तेरा ही पाला हुआ।
तेरे आँचल मेँ पलकर सूर्यकाँत भी निराला हुआ।
नामवर और कमलेश्वर ने है अब भी सँभाला हुआ।
स्वतंत्रता की नीँव थी,तू भारत-मंदिर के शिखर का कलश है।
मैँ मानता हूँ तुझपे छंद है, अलंकार है, तुझमेँ रस है।
मगर मैँ जानता हूँ हिन्दी तू आज कितनी विवश है।
पूरे वर्ष मेँ तेरे लिये केवल एक हिन्दी-दिवस है।
Monday 5 October 2009
महज़ जीने के लिये..
कितने ख़ार हैँ राहोँ मेँ,अब ये भी देख लिया जायेगा।
चल पड़ा हूँ तो सफ़र तो हर हाल मेँ तय किया जायेगा।
अच्छी तरह वाकिफ हूँ मैँ अपने हश्र से
कभी हाथोँ को बाँधा जायेगा कभी होठोँ को सिया जायेगा।
चल पड़ा हूँ तो सफ़र तो हर हाल मेँ तय किया जायेगा।
मरने के ख़ौफ से भूल जाऊँ जीने का भी सलीका
महज़ जीने के लिये हमसे तो न जिया जायेगा।
चल पड़ा हूँ तो सफ़र तो हर हाल मेँ तय किया जायेगा।
चल पड़ा हूँ तो सफ़र तो हर हाल मेँ तय किया जायेगा।
अच्छी तरह वाकिफ हूँ मैँ अपने हश्र से
कभी हाथोँ को बाँधा जायेगा कभी होठोँ को सिया जायेगा।
चल पड़ा हूँ तो सफ़र तो हर हाल मेँ तय किया जायेगा।
मरने के ख़ौफ से भूल जाऊँ जीने का भी सलीका
महज़ जीने के लिये हमसे तो न जिया जायेगा।
चल पड़ा हूँ तो सफ़र तो हर हाल मेँ तय किया जायेगा।
Sunday 4 October 2009
कविता और केला
इस धूप मेँ
बड़ी बेफ़िक्री से बेचे जा रहा है केले।
बिल्कुल अकेले।
पैसे ही क्यूँ लोहा प्लास्टिक भी लेले।
न तो उसके माथे पर सिकन है,
और न ही उसकी नज़र रौब से सामने खड़ी इमारत पर है।
उसकी नज़र है तो सिर्फ़ उन दरवाजोँ पर,
जो उसकी आवाज सुनकर खुलते हैँ।
मुझे जलन हो रही है उसकी बेफ़िक्री से!
जिनके बारे मेँ सोच कर परेशान रहता हूँ अक्सर..
क्योँ वो उस तरह नहीँ सोचता उन सब चीजोँ को?
वो निम्न वर्ग का है....
...और मैँ शायद मध्यमवर्गीय।
मैँ उसके वर्ग में शामिल नहीँ होना चाहता।
पर उच्च वर्ग मेँ पहुँचने का इरादा है!
लेकिन उसके पास यह सब सोचने के लिये अभी वक्त नहीँ है।
वजह वह पढ़ा-लिखा नहीँ है।
इसलिये वो सपने नहीँ देखता,केले बेचता है।
मैँ पढ़ा-लिखा हूँ?
मैँ वहाँ से हूँ जहाँ सपनोँ का व्यवसाय होता है।
मैँ केले नहीँ बेच सकता।
और पंखे मेँ बैठकर कविता रच रहा हूँ।
और वह केले बेचे चला जा रहा है।
मैँ हूँ कि उसके ऊपर कविता लिख रहा हूँ।
और वो मेरी ओर देखता भी नहीँ है।
क्योँकि मेरे हाथ मेँ लोहा-प्लास्टिक नहीँ है।
उसे मालूम नहीँ है कि मैँ उसी के ऊपर कविता लिख रहा हूँ।
वैसे उसे पता चल भी जाये तो क्या अंतर पड़ेगा उसे?
दरअसल कविता तो मेरी ही कहलायेगी।
या फिर यह कविता उसकी हो भी जाये
तो इसे केले की तरह बेचकर
बच्चोँ का पेट तो नहीँ भर सकता।
चलो ठीक है मैँ कह सकता हूँ
कि उसे कविता बेचना नहीँ आता
और मुझे केले!
बड़ी बेफ़िक्री से बेचे जा रहा है केले।
बिल्कुल अकेले।
पैसे ही क्यूँ लोहा प्लास्टिक भी लेले।
न तो उसके माथे पर सिकन है,
और न ही उसकी नज़र रौब से सामने खड़ी इमारत पर है।
उसकी नज़र है तो सिर्फ़ उन दरवाजोँ पर,
जो उसकी आवाज सुनकर खुलते हैँ।
मुझे जलन हो रही है उसकी बेफ़िक्री से!
जिनके बारे मेँ सोच कर परेशान रहता हूँ अक्सर..
क्योँ वो उस तरह नहीँ सोचता उन सब चीजोँ को?
वो निम्न वर्ग का है....
...और मैँ शायद मध्यमवर्गीय।
मैँ उसके वर्ग में शामिल नहीँ होना चाहता।
पर उच्च वर्ग मेँ पहुँचने का इरादा है!
लेकिन उसके पास यह सब सोचने के लिये अभी वक्त नहीँ है।
वजह वह पढ़ा-लिखा नहीँ है।
इसलिये वो सपने नहीँ देखता,केले बेचता है।
मैँ पढ़ा-लिखा हूँ?
मैँ वहाँ से हूँ जहाँ सपनोँ का व्यवसाय होता है।
मैँ केले नहीँ बेच सकता।
और पंखे मेँ बैठकर कविता रच रहा हूँ।
और वह केले बेचे चला जा रहा है।
मैँ हूँ कि उसके ऊपर कविता लिख रहा हूँ।
और वो मेरी ओर देखता भी नहीँ है।
क्योँकि मेरे हाथ मेँ लोहा-प्लास्टिक नहीँ है।
उसे मालूम नहीँ है कि मैँ उसी के ऊपर कविता लिख रहा हूँ।
वैसे उसे पता चल भी जाये तो क्या अंतर पड़ेगा उसे?
दरअसल कविता तो मेरी ही कहलायेगी।
या फिर यह कविता उसकी हो भी जाये
तो इसे केले की तरह बेचकर
बच्चोँ का पेट तो नहीँ भर सकता।
चलो ठीक है मैँ कह सकता हूँ
कि उसे कविता बेचना नहीँ आता
और मुझे केले!
Saturday 13 June 2009
आम आदमी
सब मेरी तरह आम आदमी हैं।
आदमी इसलिए क्योँ कि ये चल फ़िर सकते हैं।
कितनी ही ऊंचाई तक चढ़कर कितने भी नीचे गिर सकते हैं।
आम इसलिए क्योँ कि इन्हें बाजार से खरीद कर खाया जा सकता है।
आचार, मुरब्बा या अमचूर कुछ भी बनाया जा सकता है।
दिखने में तो ये भी उनके ही जैसे दीखते हैं।
पर वो शोरूम की चीजें है और ये सड़कों पर बिकते हैं.
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